प्रसंग: यह पंक्तियाँ भक्तिकाल के प्रसिद्ध कवि सूरदास द्वारा रचित एक पद का हिस्सा हैं, जिसमें वह भगवान श्रीकृष्ण की कृपा और उनकी शरण में जाने की महिमा का वर्णन करते हैं। सूरदास जी ने अपनी भक्ति और समर्पण के माध्यम से भगवान की कृपा को सच्चे हृदय से महसूस किया है और यह पद उसी भाव को व्यक्त करता है।
संदर्भ: इस पद में सूरदास जी एक अनाथ की स्थिति का वर्णन कर रहे हैं, जो जीवन के कष्टों और संघर्षों से घिरा हुआ है। वह भगवान से प्रार्थना कर रहा है कि वह उसे इन कष्टों से मुक्ति दिलाएं। इसमें यह भाव है कि भगवान ही हमारे जीवन के कष्टों का निवारण कर सकते हैं और उनकी शरण में जाने से ही मुक्ति प्राप्त होती है।
व्याख्या:सूरदास जी कहते हैं कि “मैं एक अनाथ हूं,” अर्थात उनके पास कोई सहारा नहीं है, वह केवल भगवान की शरण में ही अपनी मुक्ति देखता है। “तीर लेकर ढोल पर बैठा हूं” का अर्थ है कि वह जीवन की कठिनाइयों से घिरा हुआ है और उन समस्याओं का समाधान करने में असमर्थ है। वह उनसे डरता है और भागना चाहता है, यानी संसारिक दुखों और संघर्षों से बचना चाहता है।
“मैं सत्य के सामने सिर झुकाता हूं” का अर्थ है कि वह भगवान के सामने नतमस्तक हो रहा है और सच्चे हृदय से उनकी शरण में जा रहा है। “दोनों प्रकार के कष्ट आये, कौन बचाये प्राण” – यहां वह कह रहे हैं कि चाहे कोई भी संकट आ जाए, केवल भगवान ही उसकी रक्षा कर सकते हैं।
अंत में, सूरदास जी भगवान श्रीकृष्ण की महिमा का गुणगान करते हैं और कहते हैं कि जब भी कोई भक्त सच्चे हृदय से भगवान को स्मरण करता है, तो भगवान उसे संकट से मुक्त कर देते हैं। “सूरदास सर लाग्यो सच्चाही, जय-जय कृपानिधान” – इसका अर्थ है कि सच्चे हृदय से भगवान की शरण में जाने से ही मुक्ति संभव है और भगवान की कृपा से ही जीवन के सभी कष्ट दूर होते हैं।
सूर के पद -2
प्रसंग:यह पद भक्तिकाल के प्रसिद्ध कवि सूरदास द्वारा रचित है, जिसमें वे हरि (भगवान) से विमुख, यानी जो लोग भगवान की भक्ति नहीं करते, उनके संग से बचने का उपदेश दे रहे हैं। सूरदास जी इस पद के माध्यम से संसारिक माया, बुरी संगति, और विकारों के प्रभाव से दूर रहने की सलाह देते हैं, क्योंकि वे मनुष्य को भगवान की भक्ति से विमुख कर देते हैं।
संदर्भ:सूरदास जी इस पद में उन लोगों के संग से बचने की बात कर रहे हैं जो भगवान की भक्ति से विमुख हैं और जिनके साथ रहने से मन में बुरी प्रवृत्तियाँ और विकार उत्पन्न होते हैं। उनका मानना है कि भगवान से विमुख व्यक्तियों के साथ रहना मनुष्य के लिए हानिकारक है क्योंकि यह भगवान की भक्ति में बाधा डालता है।
व्याख्या:“छाँड़ि मन हरि बिमुखन को संग” – सूरदास जी यहां यह कह रहे हैं कि हमें उन लोगों का संग त्याग देना चाहिए जो भगवान की भक्ति से विमुख हैं। ऐसे लोगों का साथ हमें सही रास्ते से भटकाता है।
“जाके संग कुबुद्धि उपजै, परत भजन में भंग” – जिनके साथ रहने से हमारी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है और भगवान की भक्ति में विघ्न उत्पन्न होता है, उनसे दूर रहना ही सही है। उनका संग करने से हमारी भक्ति और ध्यान भंग हो जाते हैं।
“काम क्रोध मद लोभ मोह में, निसि दिन रहत उमंग” – ये लोग हमेशा काम, क्रोध, अहंकार, लोभ और मोह में डूबे रहते हैं। इनके संग से हमारा मन भी इन्हीं विकारों में फंस जाता है और हम भक्ति से दूर हो जाते हैं।
“कहा भयो पय पान कराये, बिष नहिं तपत भुजंग” – जैसे विषैले साँप को दूध पिलाने से भी वह अपना विष नहीं छोड़ता, उसी प्रकार बुरे स्वभाव वाले लोग अपनी आदतें नहीं बदलते। चाहे कितनी भी कोशिश कर लो, उनकी बुरी प्रवृत्तियाँ बनी रहती हैं।
“कागहि कहा कपूर खवाये, स्वान न्हवाये गंग” – कौए को कपूर खिलाने या कुत्ते को गंगा स्नान कराने से उनका स्वभाव नहीं बदलता। इनका अर्थ है कि बुरे लोगों को चाहे जितनी भी अच्छी बातें सिखाओ, वे अपने मूल स्वभाव को नहीं छोड़ते।
“खर को कहा अरगजा लेपन, मरकत भूषन अंग” – गधे पर अगर चंदन का लेप भी कर दिया जाए या उसे मणियों से सजाया जाए, तो वह गधा ही रहेगा। यानी बुरे व्यक्ति पर किसी भी प्रकार की अच्छाई थोपने से भी उसका स्वभाव नहीं बदलता।
“पाहन पतित बान नहिं भेदत, रीतो करत निषंग” – पत्थर पर तीर चलाने से वह नहीं टूटता, यानी बुरे व्यक्ति पर कितनी भी अच्छाई का प्रभाव डालने की कोशिश करो, वह व्यर्थ जाती है।
“सूरदास खल कारी कामरी, चदै न दूजो रंग” – अंत में, सूरदास जी कहते हैं कि दुष्ट व्यक्ति की प्रवृत्ति काले कपड़े की तरह होती है, जिस पर कोई दूसरा रंग नहीं चढ़ सकता। यानी उसकी बुरी आदतें इतनी गहरी होती हैं कि कोई भी अच्छी बात उन पर असर नहीं करती।
निष्कर्ष:इस पद के माध्यम से सूरदास जी हमें यह सिखा रहे हैं कि हमें बुरी संगति से बचना चाहिए, क्योंकि बुरे लोगों का स्वभाव बदलना मुश्किल होता है। उनके साथ रहने से हमारी भक्ति, ध्यान और सच्ची आध्यात्मिक प्रगति में बाधा उत्पन्न होती है। जैसे विषैले सर्प का स्वभाव विषैलेपन से मुक्त नहीं होता, वैसे ही बुरे व्यक्तियों का स्वभाव भी नहीं बदलता, चाहे कितनी भी अच्छाई उन पर थोप दी जाए।
सूर के पद -3

जसुदा मदन गुपाल सोवाबै। देखि सयन गति त्रिभुवन कपै ईस बिरंचि भ्रमावै । असित अरून सित आलस लोचन उभय पलक परिआवै। जनु रवि गत संकुचित कमल जुग निसि अलि उड़न न पावै ।। स्वास उदर उरसति यौं मानौ दुग्ध सिंधु छबि पाबै। नाभि सरोज प्रगट पदमासन उतरि नाल पछितावै ।। कर सिर तर करि स्याम मनोहर अलक अधिक सोभावै। सूरदास मानौ पन्नगपति प्रभु ऊपर फन छाबै।
प्रसंग:यह पद भक्तिकाल के महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित है, जिसमें श्रीकृष्ण के बाल रूप का वर्णन किया गया है। इस पद में यशोदा माता अपने बालक श्रीकृष्ण को सुलाने का प्रयास कर रही हैं। श्रीकृष्ण के सौंदर्य और उनकी बाल लीलाओं का अद्भुत वर्णन किया गया है। सूरदास जी ने भगवान के बाल रूप की मोहकता को दर्शाते हुए पूरे ब्रह्मांड पर उनके प्रभाव का चित्रण किया है।
संदर्भ:इस पद का संदर्भ श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं से जुड़ा है, जिसमें कवि ने भगवान श्रीकृष्ण के सोने की अवस्था का इतना सुंदर चित्रण किया है कि देखने मात्र से पूरा ब्रह्मांड हिल उठता है। यहां श्रीकृष्ण का बालक रूप, उनकी सुंदरता और उनकी दिव्यता को व्यक्त किया गया है, जो सभी देवताओं को भी चमत्कृत कर देती है। इस प्रसंग में सूरदास जी भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अपने गहरे प्रेम और भक्ति का वर्णन कर रहे हैं।
व्याख्या:“जसुदा मदन गुपाल सोवाबै” – यशोदा माता अपने प्रिय पुत्र श्रीकृष्ण (मदन गोपाल) को सुलाने का प्रयास कर रही हैं। यहां ‘मदन गुपाल’ का अर्थ है कि श्रीकृष्ण इतने सुंदर हैं कि उनका रूप सभी को मोहने वाला है, इसलिए माता उन्हें सुला रही हैं।
“देखि सयन गति त्रिभुवन कपै, ईस बिरंचि भ्रमावै” – जब श्रीकृष्ण सोते हैं, तो उनकी शयन गति से पूरे तीनों लोक (त्रिभुवन) हिल उठते हैं। यहां तक कि भगवान शिव और ब्रह्मा भी उनके बालक रूप की इस अद्भुत स्थिति को देखकर चकित हो जाते हैं।
“असित अरून सित आलस लोचन उभय पलक परिआवै” – श्रीकृष्ण की आंखें आलस से भरी हुई हैं, एक पल उनका रंग काला, लाल और सफेद दिखता है। उनकी पलकों का गिरना-उठना इस प्रकार है जैसे दो कमल की पंखुड़ियां धीरे-धीरे बंद हो रही हों।
“जनु रवि गत संकुचित कमल जुग निसि अलि उड़न न पावै” – जैसे सूर्य अस्त होने पर कमल के फूल बंद हो जाते हैं और भौंरे उड़ नहीं पाते, उसी प्रकार श्रीकृष्ण की आंखें भी नींद से बोझिल हो गई हैं, और वे अपने सौंदर्य में खो रहे हैं।
“स्वास उदर उरसति यौं मानौ दुग्ध सिंधु छबि पाबै” – उनके सांसों की गति ऐसी प्रतीत होती है जैसे उनके उदर और छाती में दूध का समुद्र हिलोरें ले रहा हो। श्रीकृष्ण का शयन सौंदर्य इस प्रकार है कि उसे देखकर लगता है मानो वह किसी दूध के महासागर के समान शांत और सौम्य हो गए हों।
“नाभि सरोज प्रगट पदमासन उतरि नाल पछितावै” – उनके नाभि के कमल में ब्रह्मा जी प्रकट होते हैं, लेकिन उन्हें यह देखकर आश्चर्य होता है कि वे इस बालक के अद्भुत सौंदर्य और शांति से इतने प्रभावित हैं कि कुछ भी करने में असमर्थ हो जाते हैं।
“कर सिर तर करि स्याम मनोहर अलक अधिक सोभावै” – श्रीकृष्ण का श्यामल शरीर और उनके घुंघराले बाल उनके सौंदर्य को और भी बढ़ाते हैं। उनका सिर अपने हाथों के नीचे रखते हुए बालों की छटा और भी मनोहर प्रतीत होती है।
“सूरदास मानौ पन्नगपति प्रभु ऊपर फन छाबै” – सूरदास जी कहते हैं कि ऐसा प्रतीत होता है मानो शेषनाग अपने फनों से श्रीकृष्ण पर छत्र की तरह छाया किए हुए हैं, जैसे उन्होंने श्रीकृष्ण को शरण दी हो।
निष्कर्ष:इस पद में सूरदास जी ने भगवान श्रीकृष्ण के बाल स्वरूप की सुंदरता और उनकी शयन अवस्था का अत्यंत मोहक और दिव्य चित्रण किया है। श्रीकृष्ण के सौंदर्य को देखकर देवता भी चमत्कृत हो जाते हैं, और यहां तक कि ब्रह्मा जी भी उनकी लीला को देखकर आश्चर्यचकित होते हैं। सूरदास जी ने इस पद में यह भाव व्यक्त किया है कि भगवान का बालक रूप भी पूरी सृष्टि पर अपना प्रभाव डालता है, और उनकी महिमा अपार है।
सूर के पद का वस्तुनिष्ट प्रश्न :
(1) अनाथ होकर कवि कहाँ बैठे हैं ?
उत्तर :-पेड़ की डाल पर ।
(२)सुमिरत से क्या संकेत मिलता हैं ?
उत्तर :-ईश्वर का नाम लेना ।
(3) सर्प को दूध पिलाने का त्यौहार किस दिन मनाया जाता है ?
उत्तर :-नाग पंचमी के दिन ।
(4)सूर्य के डूबते ही कमल की पंखुडियां क्या हो जाती है ?
उत्तर :-सिकुड़ जाती हैं ।
सूर के पद का लघुत्तरीय प्रश्न
(1) कवि किससे प्रार्थना करता है?
उत्तर :-कवि भगवान से प्रार्थना करता है कि वह उसे बुरे संग से बचाएं और उसे भक्ति में स्थिर रखें।
(2) बान कौम साधता है?
उत्तर :-बान बहेलिया साधता हैं ।
(3) मन को किसका साथ छोड़ने के लिए कहा गया है?
उत्तर :-इश्वर के विरोधी नस्तिको का साथ छोड़ देने के लिए कहा गया है ।
(4) ‘पय पान’ कराने पर भी कौन विष का त्याग नहीं करता?
उत्तर :-पय पान’ कराने पर भी साँप विष का त्याग नहीं करता ।
(5) गंगा नहाने की बात किसके लिए कही गयी है?
उत्तर :-गंगा नहाने की बात कुत्ते के लिए कही गयी है ।
सूर के पद का बोधमुल्क प्रश्न
उत्तर :-सूरदास जी ने भक्ति के मार्ग में कई प्रकार की बाधाएँ पाई हैं, जिनमें मुख्य रूप से काम (वासना), क्रोध, लोभ, मोह, और अहंकार शामिल हैं। इन विकारों के कारण मनुष्य भगवान की भक्ति से दूर हो जाता है और संसारिक माया में फंस जाता है। इसके साथ ही, उन्होंने बुरी संगति को भी एक बड़ी बाधा माना है, क्योंकि बुरे लोगों का संग मनुष्य को भक्ति मार्ग से विचलित कर देता है। बुरे स्वभाव वाले व्यक्तियों के साथ रहने से हमारी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है और हम भगवान की भक्ति में पूरी तरह से समर्पित नहीं हो पाते।
मुक्ति का तरीका:-सूरदास जी ने इन बाधाओं से मुक्ति का तरीका भी बताया है। उनका मानना है कि मनुष्य को बुरी संगति छोड़कर अच्छे और भक्तिपूर्ण लोगों का संग करना चाहिए। भगवान की निरंतर भक्ति, सत्संग और बुराई से दूर रहकर ही मनुष्य इन विकारों से मुक्त हो सकता है। उन्होंने विशेष रूप से कहा है कि भगवान की भक्ति और सत्संग ही वह मार्ग है जो इन विकारों से बचाकर मनुष्य को सच्ची शांति और मुक्ति की ओर ले जाता है।
उत्तर :-सूरदास जी ने अपने पदों में मन को समझाते हुए यह कहा है कि मनुष्य को भगवान की भक्ति के मार्ग पर चलना चाहिए और बुरी संगति, बुरी इच्छाओं तथा सांसारिक मोह-माया से दूर रहना चाहिए। उन्होंने मन को यह समझाया है कि काम, क्रोध, लोभ, मोह, और अहंकार जैसे विकारों से बचकर ही सच्ची भक्ति की जा सकती है। उन्होंने मन को बुरे लोगों का साथ छोड़ने के लिए प्रेरित किया है, क्योंकि ऐसे लोगों का संग भगवान की भक्ति में बाधा डालता है।
सूरदास जी ने यह भी समझाया है कि मन को स्थिर करके केवल भगवान की ओर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। संसारिक सुखों की मोह-माया में फंसने से मनुष्य भगवान की सच्ची भक्ति से दूर हो जाता है, इसलिए मन को सच्ची शांति और आनंद भगवान की भक्ति में ही मिल सकती है।
उत्तर :-इस पंक्ति का अर्थ है कि जब भगवान श्रीकृष्ण सोते हैं, तब उनकी शयन अवस्था (सोने की स्थिति) को देखकर तीनों लोक (त्रिभुवन) हिल जाते हैं और विचलित हो जाते हैं। उनकी दिव्य और अद्भुत शयन गति को देखकर भगवान शिव (ईस) और ब्रह्मा (बिरंचि) भी भ्रमित और चकित हो जाते हैं।
यहां सूरदास जी ने श्रीकृष्ण की बाल लीला का वर्णन करते हुए बताया है कि उनकी शयन की स्थिति इतनी प्रभावशाली और अद्वितीय है कि पूरा ब्रह्मांड भी उसकी गति से प्रभावित हो जाता है।